कुछ तो था मुझमें

ख्वाहिशों के साये में कदम चले थे लेकिन निशां का ज़िक्र न था
हर दिन जीने की तलब चाह कर, हर दिन के जीने का फ़िक्र न था।

हर दर को दीदार करने की सबब थी, पर दर की ठोकरों की चोट का शिकन न था,
जो रास्तें मंज़िलों तक ले जाती, उन रास्तों पर चलने का ज़ोर न था।

बंजारों की महफ़िल में शाम बिताने की कसक थी, इसीलिए किसी ठिकाने पर अपना मोड़ न था,
यादें जो बाकी रह गयी थी, उन यादों से निकले शोर का का कोई ग़म न था।

रात की गहराइयों में सिर्फ अंधेरा न था, उस दिन अंधेरे से इश्क़ सा होने लगा था,
काली आँखों में छुपे राज का पता न था, लेकिन आँखों से निकला पानी कुछ अपना सा था।

बात ज़ुबां पर आ कर लौट रही, दिल मानने को तैयार न था,
वक़्त की दरकार थी, शायद वापस कभी खुद से मिलना न था।

रोते भी कितना आखिर, आंसुओं का भी सब्र टूट जाता था,
कभी खुद से इतना प्यार था, आज दर्द का भी एहसास न था।

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